Monday, February 7, 2011

मज़बूरी क्या हुई

कुछ इनसे कुछ उनसे दूरी क्या हुई
टूटे रिश्ते ये मज़बूरी क्या हुई
 
आज भी सोच के शर्मिंदा हैं
सामने उनके वो मगरूरी क्या हुई
 

घिसते दीवारों से मिट्टी होते हुए  
कट गयी उम्र वो पूरी क्या हुई
 

टूटी डाली से खोई हरियाली
जला दी पत्ती वो भूरी क्या हुई
 

राख अपनी समेटे मुट्ठी में
आग दिल में 'ये बद्स्तूरी क्या हुई ?'
 

बाँट ना पायी 'महक' मगर बंट गयी
आई जो हिस्से वो कस्तूरी क्या हुई?







Tuesday, January 11, 2011

अपनी हस्ती को मिटा के चले

अपनी हस्ती को मिटा के चले
सजदे में सिर झुका के चले

डाली एक निगाह जो खुद पे
नज़रों से नज़र चुरा के चले

अपनी आहों की आघोष में
तेरी तस्वीर छुपा के चले

तेरी रौशनी से ले एक किरण
अँधा मन रोशना के चले
 

तू दरिया है और सागर भी 
कतरे में हम समा के चले

ऐसी तेरे इश्क की धुन लगी
कि हर नफरत भुला के चले

हम तो तुझमे ही खोये रहे
कहते दिल में बसा के चले


Tuesday, October 19, 2010

एक महक बनके आ गया कोई

जीना मुझको सिखा गया कोई
दिल में मेरे समा गया कोई

उनकी फूलों के साथ तक ना बनी
यहाँ शूलों से निभा गया कोई

मेरा साया मुझे नहीं दिखता
क्या बिछड़ कर चला गया कोई

बेखबर अपने आप से थे हम
खुद से तारुफ़ करा गया कोई

आँख में बनके एक आंसू सा
मेरी पलकों पे आ गया कोई

आज आँगन मेरा खुशगवार सा है
एक महक बनके आ गया कोई

Tuesday, August 31, 2010

गए वो हर कसम उतार गए

मेरे सजदे न कुछ गुज़ार गए
गए वो हर कसम उतार गए

चाँद अपनी हथेली पर रखा
हम जब भी जिस्म के पार गए

उम्र गुजरी जो रंग छुपाने में
करके हमको दाग़दार गए

किस्मत लकीरें न मिट पायीं
दूर तक रोते भी ज़ार ज़ार गए

बाग़ की कलियाँ खिलेंगी कैसे
बागबान जिसके हो फरार गए

अपनी हस्ती पे था गरूर हमें
तेरी एक ही नज़र में हार गए

अधुरा सा सपना आधी सी जाँ
गए वो भी कर तार तार गए

ना मंजिल ना कोई हमराही
गए हर राह बेकरार गए

क्यूँ इंतज़ार है उनका 'महक'
वो जो दिल से हमें विसार गए

Wednesday, August 18, 2010

बारिश की छम छम

बारिश की छम छम जैसे मोती बरस रहे हैं 
बादल के पैरों में घुंघरू से बंध गए हैं

गरज गरज के शोर मचाये छम छम नाच दिखाए
पेड़ भी झूमे हलके हलके हो के मघन खड़े हैं

और जोर से और जोर से आज तो मेघा बरसो रे
प्यासी धरती के आँचल पे कितने दाग़ पड़े हैं

बरसो ना केवल तन पे मेरे मन में भी बरसो
विक्कारों की अगन से कितने छाले पड़े हैं

कुछ रहमत उनपर बरसाओ जिनके दिल में दर्द नहीं
कितने मासूमों के जीवन उनके क़दमों तले हैं

Friday, July 30, 2010

दिल है पर जज़्बात गुम

दिल है पर जज़्बात गुम
हाल रहें हालात गुम

हम आमने तुम सामने 
और वस्लों की रात गुम
 
छह सुर संग के साधे
पर सुर नंबर सात गुम
 

शम्मा अँधेरे में रोशन
रोशनी की बात गुम
 

जंगल में मंगल हुए
आदमी की ज़ात गुम
 

दूरियों में ख्याल था
पास तो ख्यालात गुम
 

रात तो दुल्हन बनी
खाबों की बरात गुम
 

कुछ तो दिल में है 'महक'
हो जाती है बेबात गुम





Saturday, July 24, 2010

भीगे अक्षर

भीगे अक्षर ओंस के कतरे
सोच धरा पे बिखरे बिखरे 

बादल पवन पंखेरू जैसे
नील गगन पे किसने चित्रे

बहते उड़ते खिलखिलाते
हर मोड़ पे निखरे निखरे

फूल से कोमल कांच सरीखे
कैसे कैसे जिया में उतरे

पग पग छेड़ें करें गुदगुदी 
यहाँ वहां रहते हैं उकरे

मायाजाल ये डालें ऐसा
उफ़ मेरे ना मुख से उचरे 
 
पिघली रहती इनके गिरदे
'महक' भी अक्षरमाला सिमरे

Monday, July 12, 2010

मैं यादों की परी हुई

अंदर सौ तूफ़ान भरे हैं सांस भी लूं तो डरी हुई
एक आह्ट से छलके ना प्रीत की गगरी भरी हुई


अंजानो की नगरी में मेरा मुख पहचाना सा
कितनो की आयें आवाजें खड़ी मैं सहमी डरी हुई
 

दरिया के बहते पानी संग सहजे ही मैं बह जाऊं 
गोरी चांदनी लिपटाऊ जब निकलूँ भीगी ठरी हुई
 

दूर देश कोई अपना रहता एक दिन खोज पता पाऊं   
जा पहुंचूं मैं उसके सन्मुख घूंघट तज निखरी हुई   
 

तेरी याद का काजल पाऊं क्यों फिर नैन ना मटकाऊँ
महक घुली साँसों में तेरी मैं यादों की परी हुई

Monday, July 5, 2010

जो गुज़रा है

जो गुज़रा है कुछ दे गया
जो आएगा ले सकता है
पलों को बांधे रखने में
हर कोई जी थकता है

आनी जानी माया है
क्यूँ तू फिर ललचाया है
सच्चा बोले बोल फकीरा 
कहते हैं की बकता है
 

जियादा है जो तेरे पास 
और की तू मत रखना आस
उसके दिल का हाल भी जान
जो जूठन को तकता है
 

जीवन जिसने तुझको अरपा 
तुमने उसको ही है सरपा
दो तो मीठे बोल वोह चाहे 
उसमे भी तू थकता है

फल बनता जब फूल खिले
धीरे धीरे मिठास मिले 
कच्चा ही ना तोड़ो तुम
फल हौले हौले पकता है

हर आवाज़ कान सुनते ना
सब कुछ आँख भी देखे ना
दिल से तुम महसूस करो
चुप छुप कोई सिसकता है

राम गए पर राम रहा है
कृष्ण का भी नाम रहा है
नाम कोई ईशवर नहीं होता
कर्मों का मान झलकता है

करता तू पर नाम है उसका
जो भी रखदो नाम वो उसका
'महक'  तो कागज़ का है फूल
बन खुशबू वोही महकता है

Saturday, June 12, 2010

तेरी बेरुखी के चलते

तेरी बेरुखी के चलते मेरे अरमाँ निकलते रहे
तू आकाशों पे छाया हम खाक में मिलते रहे

शब्दों की मदिरा थी जो बेसुध हमको कर गयी
कुछ पिए कुछ गिराए बहकते फिसलते रहे
 
उजाले पास थे मगर आँखों में रौशनी ना थी
जब तक जागे नींद से मंज़र बदलते रहे
 

शायद कहीं वो पथ मिले जो तुम तक पहुंचे 
पाँव में छाले थे पड़े पर आस में चलते रहे
 

जीते थे सपनों में पर अब नींदें ही उड़ गयीं
ग़मों के आईने में आंसूयों से संवरते रहे


कोई दीवाना महक का किसी को रंग भा गया
हमपे ना अपना जोर था बस यूँ ही बंटते रहे