Saturday, June 12, 2010

तेरी बेरुखी के चलते

तेरी बेरुखी के चलते मेरे अरमाँ निकलते रहे
तू आकाशों पे छाया हम खाक में मिलते रहे

शब्दों की मदिरा थी जो बेसुध हमको कर गयी
कुछ पिए कुछ गिराए बहकते फिसलते रहे
 
उजाले पास थे मगर आँखों में रौशनी ना थी
जब तक जागे नींद से मंज़र बदलते रहे
 

शायद कहीं वो पथ मिले जो तुम तक पहुंचे 
पाँव में छाले थे पड़े पर आस में चलते रहे
 

जीते थे सपनों में पर अब नींदें ही उड़ गयीं
ग़मों के आईने में आंसूयों से संवरते रहे


कोई दीवाना महक का किसी को रंग भा गया
हमपे ना अपना जोर था बस यूँ ही बंटते रहे