तेरी बेरुखी के चलते मेरे अरमाँ निकलते रहे
तू आकाशों पे छाया हम खाक में मिलते रहे
शब्दों की मदिरा थी जो बेसुध हमको कर गयी
कुछ पिए कुछ गिराए बहकते फिसलते रहे
उजाले पास थे मगर आँखों में रौशनी ना थी
जब तक जागे नींद से मंज़र बदलते रहे
शायद कहीं वो पथ मिले जो तुम तक पहुंचे
पाँव में छाले थे पड़े पर आस में चलते रहे
जीते थे सपनों में पर अब नींदें ही उड़ गयीं
ग़मों के आईने में आंसूयों से संवरते रहे
कोई दीवाना महक का किसी को रंग भा गया
हमपे ना अपना जोर था बस यूँ ही बंटते रहे
क्या बात है.... हमेशा की तरह लाजवाब..
ReplyDeleteमन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।
ReplyDeleteपाँव में छाले थे मगर आस में चलते गए....
ReplyDeleteबहुत ही खूब कहा है आप ने....
मन में किसी चीज़ की चाह हो तो लाख छालें पड़ जाएँ....कोई परवाह नहीं
OH! BEAUTIFULLY ENCAPSULATED!
ReplyDeletephir se kuch bahut achha.......:)
ReplyDeleteManjeet Ji,
ReplyDeleteBahut Sunder Rachna Sunder Bhaav
KOI DIWANA MAHAK KA KISI KO RANG BHA GAYA.....
Surinder Ratti
Mumbai